जब कल तुम भी चुप थे ।

सुनाई देती, तुम्हारी धड़कन ।
तेरे भींगे होंठ, चुप्पी साधे ।
गालों पर दो नन्हें आँसु ।
जब कल तुम भी चुप थे ।

गा रही थी, कोयल वहाँ और ,
तुमने ढँक रखे थे कान,
फिर
भी कूक सुनाई देती ।
जब कल तुम भी चुप थे ।

बोल रही थी, तेरी आँखे,
पुछती थी, मुझसे फिर कुछ ।
मेरी मौन उत्तर दे रही थी ।
जब कल तुम भी चुप थे ।

खेल रही थी, तेरी लटों से,
आवारा ठंडी पुरवैया हवाएँ ।
और मैं बस जल रहा था ।
जब कल तुम भी चुप थे ।

चुप सी थी, सारी दुनिया,
अपनी गति, अपने रास्ते ।
पर यह चुप्पी गुंज रही थी,
जब कल तुम भी चुप थे ।

नन्हीं – नन्हीं भावनाएँ

नन्हीं – नन्हीं भावनाएँ,
सच कहूँ – मेरी कविता सी ,
मेरे सामने के रास्ते में,
निकल पड़ती है, यूँ ही ।

बिना जाने वो नन्हीं,
निकल पड़ती है,
उस धुप में खेलती,
फिर गिर पड़ती है ।

देख गिरी मेरी नन्हीं,
समझाता हूँ – न जाना ।
खुब रोकर सो पड़ती है,
मेरे कंधो पर बेचारी ।

कितनी ही बार न ,
उससे गलती होती ,
फिर भी सीधी सी,
बस यूँ ही निकल जाती ।

अब भार सी हो गयी,
मेरे इन कंधों पर,
ये नन्हीं, मेरी छोटी सी।
परन्तु किसे दे दूँ ?

शायद यही मेरी नियती है,
यह नन्हीं मेरी प्यारी सी।
बिछुड़ना नहीं चाहती,
कहती है – यहीं रहूँगी ।

जीवन का एक पल

मैनें बस कही, मेरे मन की,
बिना किसी विशेषण के,
बिना किसी सर्वनाम के ।

बस कुछ घंटे, इस पल के,
बस देखते-देखते बीत जाते,
जीया मैनें, पहली बार,
बिलकुल हँसकर, गाकर ।
बस सच्ची रंगो की भरी,
छेड़ते रंगोली की पिचकारी ।

जीवन की गति, किलोलें करती,
कभी मंद, कभी तीव्र गाती ।
उन सप्तकों पर तैरना
मैं सीख गया ।
हिलोरें लेना सीख गया,
मध्यम धाराओं में ।

दिख गया, आदीशक्ति की कला,
कितनी सुंदर है न उसकी,
समय की धारा,
बस यूँ ही बहता रहूँ ।
हँसता रहूँ, गाता रहूँ ।

हाँ, मैं खुश हूँ, मेरी हार से,
हार गया मेरा ” मैं ” ।
हाँ, मैं खुश हूँ, मेरी जीत से ।
कि मैनें जीता है एक पल ।

— कैसी हैं अँखियाँ रे तेरी —

I wrote this poem last year ,  just imagining my completely unknown beloved  who must be studying or doing a job at some place  at that moment. Ma got sentimental after reading it, looking into my aankhein. This was also published in Hindi blogger’s web magazine http://nirantar.org . 

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कैसी हैं अँखियाँ रे तेरी,
काली, नीली या भूरी रे ।

पहाङी, देशी या हिरणी सी,
स्नेह लबालब वे अँखियाँ रे ।

सीपियों बीच मोतियाँ जैसे,
इठलाती हुई पुतलियाँ रे ।

सुख के सपने बसाये हूए,
आसुँ न कोई उनमें भरना रे ।

विपदा अगर कोई आन पङे तो,
तुम ह्रदय की आँखें खोलना रे ।

बचाने के लिए बुरीं नजरें फिर,
नजरों में काजल तुम लगाना रे ।

हँसती अँखियाँ तुम खुब सबेरे,
प्यार की किरण छितराना रे ।

दीवारों की भी अँखियाँ होती,
तुम सोच-समझकर चलना रे ।

मुझसे अगर कोई भुल हो जाए,
आँखों की ही भाषा कहना रे ।

आँखे अगर थकीं होतीं हो तेरी,
वो फिर मुझको दे जाना रे ।

निंदियाँ रानी की प्यारी आँखे,
बंद करके तुम फिर सो जाना रे ।

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होली की सुबह

होली की सुबह, आँचल का कोना दबाए ,
अँखियाँ बिछाये, एक सजनी सोचती है ,
कहीं दरवाजे पे आहट तो नहीं हुई ,
साजन को गये, शायद बरसों हो गये ।

काश वो आज आते, एक उपहार सजाये,
सासु माँ की नजर बचाकर, वो फिर कहते,
कुछ समझकर, बाकी अनजाने में,
“क्यों जी, आज फिर रंग जाएँ उसी रंग में । “

लाल-हरे, पीले-गुलाबी, दोनों रंग जाते,
सिर्फ साजन रंग दिखता आज आईने में,
गहरे रंगे गाल भी आज गुलाबी दिखते,
स्पंदित फिर काँप जाती देह बेचारी ।

आँगन की रंगोली को देखकर सोचती,
सखियाँ रंगोली में रंग भरेगी,
दोपहर देवर जी की भुतहा टोली पुकारेगी,
“भाभी जी, जरा बाहर आओ, आज होली आई है ।”

शाम को आवाज आती- “बहू माँ, बच्चों को बिठाओ”,
फुदकती वो फिर चाट-पकोड़ी, पुआ-पकवान सजाती,
बस हँसती और चिकोटी काट फिर बता देती उनको
“दीपू भाई, अभी तो दही बड़े बाकी ही हैं । “

“ट्रिंग..ट्रिंग…”
अरे…. । दरवाजे पर सही में आहट हूई है ।

—09 Mar.’06 11:00 AM

सादे पन्ने

पड़ी हूई थी चिठ्ठियाँ
आलमारी के कोने में,
फेंका भी नहीं उन्हें ।
कभी दरवाजे खुलते,
देखा हँसते थे –
Blank Pages
अक्षर उनमें ।
पर वह न हँस पाता,
टपकती उसकी दो बुँदें,
आँसु की तब,
भींग जाती स्याह,
मिटने लगते अक्षर ।
मान न पाता,
बस खेल था वो ।
बंद कर आलमारी,
बैठ गया कुर्सी पर,
देखा तो वहीं,
कलम पड़ी थी
टेबुल पर और,
कागज के सादे पन्ने,
पर बढ़ते न थे,
हाथ उसके,
लिख न पाते,
अगर लिखा कुछ
इस पल,
जो बीत जाएगा,
रह जाएँगे लिखे पन्ने ।
जो उसे प्यारे थे, और
बन जाएगा इतिहास ।
और फेंक न सकेगा ।
फिर नहीं लिखा उसने-
पुचकारा वहाँ पड़े सादे पन्ने ,
जो कम से कम,
चुप तो रहते ।

अँखियों की रातें

आँखें तो बंद दिखती उसकी,
पर अंदर पुतलियाँ सोती नहीं,
Sleeping Eyes..
दोनों सहेलियों सी टहलती ।
निशा-निमंत्रण वह कैसे देती,
पहेलियों में जो उलझती गयीं ।

उन करवटों में कुछ भावार्थ था,
वह स्वपन था या यथार्थ था ,
वहाँ स्वार्थ था या परमार्थ था ।
बीती रात की दुसरी पहर भी,
आँखे फिर
कब, यूँ ही सो पड़ी ।

ऐसे हैं कुछ रिश्ते

वो कहते, भुल जाओ सब,
वो कहते, मोड़ दो राहें,
वो कहते, तोड़ दो रिश्ता,
रिश्ते
वो कहते, किस्से हैं सारे ।

जानकर भुल गया सब मैं,
रंगीन दुनिया में खो गया,
हँसता- गाता, आवारा सो गया,
पर वह रात सपनों में आ गया ।

सुबह मोड़ दिया, रास्ता अपना,
अनजानी राहों पर निकल पड़ा,
भुल गया सारे गलियाँ रास्ते ,

वह अनजाने मोड़ पर दिख गया ।

फिर, उसे तोड़ दिया, टुकड़ों में,
फिर, बेजान टुकड़ो को पीस दिया,
देखा, वो धूल बनकर बिखर गया,
मेरी माटी में अमिट बस गया ।

ऐसे हैं कुछ रिश्ते ।

अनजानी बातें

काश मैं समझ पाता,
गुलमोहर पर बैठे,
पंछियों की आवाज,
उनके गीत, उनकी वाणी ।

उनके ही तरह मस्त,
काश वैसे ही दौड़ पाता,
पतली सी टहनियों पर
गिलहरियों के साथ ।

काश मैं समझ पाता,The colors
तितलियों की टोली को,
खिले फुलों से उनकी बातें ,
फिर चुपके से रंग चुराना ।

काश मैं समझ पाता,
वे सब अनजानी बातें,
तैर रही थी पुरवैया में,
बस छु कर निकल गयी ।

कविता और पुतुल

my kavitaक्यों जाग गई, आज मेरी कविता ?
कितनी अच्छी ही तो सोयी थी !
कहाँ जाएगी तू, अनजानी राहों में ?
तू छोटी, मेरी नन्हीं डर जाएगी ।

खो जाएगी, बस रह मेरे पास,
कौन समझेगा, कौन जानेगा,
तेरी नादानी, तेरी बचकानी !
तू बस मेरे कंधों पे सो जा ।

छोटी सी खिड़की जो मैनें खोली ।
देख आज मेरी छोटी सी बगिया,
जहाँ गुलाबी कलियाँ उदास खिली ,
पर मत जा अभी – उजाला होने दे ।

मेरी थाती, देख दूर सड़क पर,
ले आऊँगा फिर तेरी एक पुतुल ।
लाल परी सी, गुनगुनाती गुड़िया,
फिर खेलना तुम दोनों, मैं सोऊँगा ।