सोनपरी

वो नीली आँखें बंद किए,
गुलाबी चुनरी में लिपटी हुई,
ज्यों फुलों के बिस्तर पर ,
सो रही थी – एक सोनपरी ।

चाँद सा उसका वो मुखड़ा,
खिल रही थी एक सादगी,
अपसराएँ ज्यों शरमा जाती,
शांत सो रही थी, सोनपरी ।

लहराते रेशमी, बाल उसके,
लालिमा भरे, गाल उसके,
चाँदनी में ज्यों नहाती,
अल्हड़ सी सोई सोनपरी ।

वहाँ सुंदर कोमल, हाथ उसके,
नगीने की अंगुठी, साथ उसके,
हथेली से मेंहदी झाँक रही,
सौन्दर्य की पर्याय सोनपरी ।

गुलाबी पंखुरी से होंठ उसके,
लगता था -अभी हँस पड़ेगी,
चंचल मन छुने को मचल जाता,
पर अभी सो रही थी सोनपरी ।

सुराही सी उसकी ग्रीवा ,
ज्यों कलाकार की अपनी कृति,
मोतियों की माला इतरा रही,
करवटें बदलती जब सोनपरी ।

रेशमी लहँगे की झालर से.
पाँवों के पायल अनायास हिलती,
कोमल कदमों की मल्लिका,
सपनों में खोई थी सोनपरी ।

P.S. : Since long back I have been planning to write such a poem, finally the idea got a shape after reading Juneli’s short story.

श्वेत-श्याम

जीवन केवल श्वेत-श्याम नहीं बंधु,
उस श्याम का रंगभरा उपवन है ।
आँखें खोलो – देखो बाँहें पसारे,
मन का आँगन एक चितवन है ।

बाहर निकल, जो हँसना चाहता,
मानो वही तेरा गुलाबी बचपन है ।
कहीं बारिश में चलना चाहता,
श्वेत-श्याम से परे, तेरा छुटपन है ।

श्वेत आशा और श्याम निराशा,
समर्पित जीवन की एक अभिलाषा ।
धान की सुनहरी बाली से पहले,
हरियाली – उसका क्षणिक जीवन है ।

श्वेत दिवस और श्याम रात्रि मध्य,
ढलती संध्या भी तो निराली है,
खेतों की मेड़ों पर से कभी देखो,
क्षितिज के माथे भी एक लाली है ।

छुईमुई

गोल गुलाबी फुलों में ,
मेरे घर के सामने,
आज हरे पत्तों में घिरी ,
खिली है एक छुईमुई ।Chui Mui Blooming

मन करता है छू लूँ ।
बैठ बच्चों की तरह निहारूँ ।
बचपन की मेरी संगिनी,
चुपचाप सुनती छुईमुई ।

पहचान न सका कोई,
अनजानी बनी रही वो,
गुलाबों से भी प्यारी,
छोटी सी एक छुईमुई ।

Chui Mui Plantएक पहचान की प्यासी,
एक छुवन को अभिलाषी,
वैसी ही शरमाती लजाती,
राह तकती एक छुईमुई ।

हवाएँ और कविताएँ

बेदर्द हवाएँ, पता नहीं कैसे,
डूब मेरे मन की गहराई,
कुछ मन की बातें चुराई,
उसके कानों में कह आई ।

पता नहीं कैसे फिर उसे,
हवाएँ उड़ा कहीं ले गई,
कविताएँ – पतंगों सी लहराई,
दूर देश, फिर आँखें छलकाई ।

आँखे पथराई, दिल भी घबराई,
मन की बातें, मन में रह गई,
फिर भी – क्यों
आज उसने ,
अपनों से भी सब बातें छिपाई ।

लकी और आठ दिन

लकी – बस कई महीने का,
कैसा दिखता होगा,
कैसा हँसता होगा,
या फिर कैसा रोता होगा,
शायद नन्हीं आँखें आज
मेरी फिर राह तकती है ।

कुछ सुनी मैनें उसकी,
कुलबुलाहट आज फोन पर,
और बैचेन हो उठा,
ज्यों लगता यहीं कहीं है,
मन करता था – छू लुँ ।
उठा लुँ आज गोद में,
फिर मत्त झुमूँ मैं ।

बस और आठ दिन,
क्यूँ नहीं बीतते ?
जैसे बीत जाते हैं,
मेरे आठ दिन वहाँ,
आठ पहर जैसे !

सपने और सच

कुछ देखा मैनें, अनजाने में,
ज्यों ही बंद की थी आँखें,
सोच रहा, सच है या सपना,
याद आता वो मन मंदिर,
जहाँ हम-तुम कल मिले थे ।


क्यों जीना चाहता हूँ – मैं,
उन्हीं चिरकल्पित सपनों में,
खुब हँसा, खुद पे, आज फिर ।
पता है, तुमसे भी ज्यादा सच्चे हैं,
तुम्हारी प्रतिबिंब,  मेरे सपनों में ।

पर क्यों डरता हूँ, जगने से मैं,
सोया नहीं हूँ, पर आँखें बंद हैं,
कहीँ झुठला न जाए, मेरा एक सपना,
और दिखे, खड़े उस आईने में तुम नहीं ।
और सपनों में ही, खोये थे तुम कहीं ।

क्या मानोगे, फिर तुम कभी,
इन शब्दों में, हाँ मैनें तुम्हें देखा है ।
फिर भी मेरी कोई शिकवा नहीं,
कोई शिकायत नहीं रही कभी ।
क्योंकि, शब्दों में, तुम सच सही ।

वो यहीं कहीं है ।

इन अनजान वादियों में,
मैं अदना सा आदमी,
छोटे – छोटे मेरे सपने,
छोटा सा घर मेरा यहाँ,
छोटा सा उपवन मेरा,
छोटी सी तितलियाँ,
मंडराती, छोटे-छोटे फूलों पर ।

कहीं बैठी है, छोटी सी,
प्यारी, साँवले सपनें संजोए,
बुनती रंगीन गलिचे,
उस गाँव के साये में,
गाँव की भाषा में गाती ।
पर ऐसा लगता है,
बगल से गुनगुनाती,
हँसती, बस चली जाती ।

कहती हवाओं से,
पगली, दिशाओं से,
मन्नतें माँगती,
बस दुआ करती,
भुलने के लिए याद करती ।
यहाँ मिलती उसकी,
देह की एक खुशबू,
इन्हीं वादियों में,
पता नहीं, कैसे आती ।

इतनी जल्दी भी क्या है !

आज मिल रही थी, दोनों की नजरें,
आपस में फिर कुछ शरारतें करती,
झुक जाती फिर प्रिया की अंखियाँ ।
उसकी नादानी से शिकायत करती,
ज्यों कहती – इतनी जल्दी भी क्या है !

सुनहरे बालों पर सरकते हाथ,
लटों से उलझती थी अंगुलियाँ ।
पुछ बैठा आज एक प्रश्न वह,
फिर कुछ उत्तर न दे पाती थी,
पर पुछती – इतनी जल्दी भी क्या है !

आज कानों के पास उसके होंठ,
कहा ज्यों धीरे से फिर वही कुछ ।
अब दूर कर दी उसने चेहरे को,
नाक पकड़कर समझाती उसको,
मुस्कुराती बोली – इतनी जल्दी भी क्या है !

आज छुआ भर ही था उसने,
उसके भींगे गुलाबी होठों को,
गोरी अंगुलियों ने रोक लिया ।
शरारती अंगुलियों को चुमकर कहती,
हँस पड़ी – अरे, इतनी जल्दी भी क्या है !

कैसे बताऊँ नई खबर ?

राह चलते कोई मिलता,
वो बैचेनी अपनी जताता,
आखिर वो भी पुछ लेता-
बताओ कोई, नई खबर ।

किसी तरह उनको बहलाता,
फिर झुठे-सच्चे बातें बताता ।
बेचारा वह समझ सब जाता
कहाँ से देता, नई खबर ।

एक का पीछा जब छुटता,
दूसरा वहीं पर रुक जाता,
तीसरा फिर दौड़ा आता,
सुनने के लिए, नई खबर ।

कैसे लोगों को मैं समझाता,
समय अपनी गति है चलता ।
परिणाम पहले अगर जान पाता,
तो बन जाती, एक नई खबर ।

आज मेरा मित्र तू जो होता,
मौन मेरा तू फिर समझता ।
बातों में मुझे फिर बहला देता,
जब तक न बनती, नई खबर ।

फिर उनके घर जाकर कहता,
ढ़ेर सारी मिठाई  बँटवाता ।
और गले लगकर उनका मै,
फिर जरूर बताता, नई खबर ।

मेरी प्रेरणा

आज फिर तुमने कह दी,
बिना सोचे, बिना समझे ।
मुझे थोड़ा जाने, अनजाने ।
भींग गयी मेरी पुतलियाँ,
पर न थे कोई आँसु ।
भींग गया मेरा दिल ।
कुछ पंक्तियाँ, अपनापन लिए।
बिना पहचाने कि मैं कौन,
या खुब पहचाने मुझे ।

वर्षों पहले सुनता था,
ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ,
मेरी नगण्य शक्ति पर।
बस आज तक वही ,
सच होती गयी ।
पता नहीं क्यों,
उसके बिना रहता ,
मै एक अकिंचन ।

मैं ढुंढ रहा था,
काफी दिनों सें,
कुछ ऐसे ही शब्द ।
आज फिर तुमने कह दी,
दुहरा दी वही बातें ।
थोड़ा हँसकर,
मेरी नादानी पर,
मोती से तेरे दाँत ।
थोड़ा गर्वित,
मेरे कारनामों पर,
होंठ कह गये कुछ पंक्तियाँ,
बस समझाकर ।

मैं उतावला नही दिखता,
पर सच पुछो तो – हूँ ।
पर लगता है फिर आज,
चुपके धड़कता है दिल मेरा ।
सच होंगी तेरी पंक्तियाँ,
सच होंगे मेरे सपने,
तु है फिर मेरी प्रेरणा ।