सपने और सच

कुछ देखा मैनें, अनजाने में,
ज्यों ही बंद की थी आँखें,
सोच रहा, सच है या सपना,
याद आता वो मन मंदिर,
जहाँ हम-तुम कल मिले थे ।


क्यों जीना चाहता हूँ – मैं,
उन्हीं चिरकल्पित सपनों में,
खुब हँसा, खुद पे, आज फिर ।
पता है, तुमसे भी ज्यादा सच्चे हैं,
तुम्हारी प्रतिबिंब,  मेरे सपनों में ।

पर क्यों डरता हूँ, जगने से मैं,
सोया नहीं हूँ, पर आँखें बंद हैं,
कहीँ झुठला न जाए, मेरा एक सपना,
और दिखे, खड़े उस आईने में तुम नहीं ।
और सपनों में ही, खोये थे तुम कहीं ।

क्या मानोगे, फिर तुम कभी,
इन शब्दों में, हाँ मैनें तुम्हें देखा है ।
फिर भी मेरी कोई शिकवा नहीं,
कोई शिकायत नहीं रही कभी ।
क्योंकि, शब्दों में, तुम सच सही ।

3 thoughts on “सपने और सच”

  1. Posted by: Prem Piyush | February 6, 2007 सपने और सचकुछ देखा मैनें, अनजाने में,
    ज्यों ही बंद की थी आँखें,
    सोच रहा, सच है या सपना,
    याद आता वो मन मंदिर,
    जहाँ हम-तुम कल मिले थे ।

    क्यों जीना चाहता हूँ – मैं,
    उन्हीं चिरकल्पित सपनों में,
    खुब हँसा, खुद पे, आज फिर ।
    पता है, तुमसे भी ज्यादा सच्चे हैं,
    तुम्हारी प्रतिबिंब, मेरे सपनों में ।

    पर क्यों डरता हूँ, जगने से मैं,
    सोया नहीं हूँ, पर आँखें बंद हैं,
    कहीँ झुठला न जाए, मेरा एक सपना,
    और दिखे, खड़े उस आईने में तुम नहीं ।
    और सपनों में ही, खोये थे तुम कहीं ।

    क्या मानोगे, फिर तुम कभी,
    इन शब्दों में, हाँ मैनें तुम्हें देखा है ।
    फिर भी मेरी कोई शिकवा नहीं,
    कोई शिकायत नहीं रही कभी ।
    क्योंकि, शब्दों में, तुम सच सही ।
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