फेयरवेल

People do come and go. And this ‘and’, many of us believe, is just like a poem. May be the same reason, when everyone was writing wishes on the farewell card of my colleague friend Amit; from me, he personally wished that – I should write a short poem for him on the card. I am reproducing the same here.

आँखें तेरी साथ रही,
बातें तेरी याद रही,
चिंता नहीं थी बाधाओं की,
मित्रता तेरी आबाद रही ।

लिखुँ कुछ तुम्हारे लिए,
आँखें अश्रुपूरित मेरे हूए,
आज दुआएँ मैं करता हूँ ,
तेरा फिर नया सबेरा हो ।

आशीष भेजू, मेरे सारे ही,
और मंगलगीत, प्यारे भी,
सपने जहाँ पर सच होते,
वहीं तेरा एक बसेरा हो ।

एक आभास फिर..

सोचा था, अंतिम बार मिल लूँ,
सोचा था, बस, इस बार देख लूँ,
सोचा था, कुछ अनकही कह दूँ,
या एक बार होठों को चुम लूँ ।

फिर..

उनसे बस मिल आया कल मैं,
देखा बस उनको झरोखे से मैंनें,
कहा उनकी-सी पगली हवाओं को मैनें,
और होंठ गुलाबी बस ज्यों भींग गये ।

फिर..

लगा अंतिम मिलना , पहली बार सा,
देखा फिर उनको, एक नये साज में,
गुँथें होंठ सारी बातें कह न पायी,
होठों पर मेरी दर्द फिर रह सी गयी ।

विनती

आज संध्या प्रदीप या विश्वास का दीपक ,
हथेलियों के आगोस, तुम मुझे सहेज लेना ।

सुबह की नारंगी किरणों से पहले तुम प्रिये,
आज अँधेरी रतिया बस मेरे साथ हो चलना ।

आज मेरी अनुभूति और प्रेरणा हो तुम गोरी,
उन अधलिखे पन्नों पर तुम सो मत जाना ।

प्रेम देना तो तुमसे सीखा है – उस दिन मैनें,
मेरे असीम प्रेमगीत, तुम आँचल में भर लेना ।

जब मैं चुप हो जाऊँ गोरी, किसी एक संध्या,
चुपके से आकर, शाश्वत मेरी गीत बन जाना ।

गन्ना

हरा-भरा वह,
रसीला मीठा,
गन्ने की तरह ।

साफ किया उसे,
काट लिया जिसे,Sugarcane
गन्ने की तरह ।

मजबूत गोल बेलनों ने,
रस निकाला उससे,
गन्ने की तरह ।

फिर वहीं माटी में,
फेंक दिया उसे,
गन्ने की तरह ।

मेरी माँ आयेगी

जब पुछा मैनें उनसे –
माँ तुम कब आओगी ।

कहती फिर मेरी माँ,
प्यार से डाँटकर –
“बिलकुल न जाऊँगी,
चुल्हे-चौके फिर क्यों,
अब भी मैं ही करूँगी ।”

नहीं मानती मेरी माँ ।
बड़ी मिन्नत की है मैनें,
झुठे – सच्चे वादे किये फिर ।
कहा – एक बार तो आजा ना,
फिर तेरी जैसी मर्जी, वैसा करना ।

खरीद रखे हैं मैनें,
उनकी साड़ी के स्टैंड,
उन पर कुछ धुले नये साड़ी,
रसोई में कुछ और बरतन,
कुछ नये पुजा की थाली,
कोने में कुछ फुलदान ।
आने वाली है शुभ एक घड़ी,
द्वारे पर लगाई, मैनें फुलों की लड़ी ।

खरीद रहा हूँ –
उनके लिए एक पलंग,
जमीन पर न सुलाऊँ उनको ।
और फिर खरीदे हैं ,
एक टीवी और कुछ सी डी ।
कुछ बहाने भी तो नहीं बनते,
पता है ये बातें न कर पायेगी ।
और यूँ ही कुछ दिन बीत जायेगी ,
फिर कल जब मेरी माँ आयेगी ।

गमलों में मैं पानी देता,
देखता नये कोपलों को,
आशाओं सी पलती बढ़ती ।
लगता है –
खिलेगी सारे गुलाबों की कली,
जब कल आएगी माँ मेरे गली ।

कुछ आवाज


अकेली रास्तों में,
कुछ कंपन थी,
उन हवाओं की,
अनजानी दिशाओं से ,
उनकी आवाजें कहलाती –
और धीमे-धीमे,
मन को बहलाती,
और अनजाने में,
देह को थिरकाती ।

कुछ देर बाद,
गुँजती दीवारों में –
फिर कहीं खो जाती ।
पुकारता मैं,
आवाज देकर,
उन आवाजों को ।
वापस
कुछ आती तो –
बस मेरी आवाज ।
और रह जाती,
सिर से पैर तक,
चुपचाप सी एक कंपन ।

अनाड़ी

कितने ही कविता – कहानी मैं लिखुँ,
सीख न पाया मैं फिर बातें करना ।

कितने ही नाटक किये हैं मैनें,
पर सीख न पाया मुखड़ा लगाना ।

सबकी सुलझी बातें सुनी है मैनें,
पर सीख न पाया मैं बहाने बनाना ।

कितने ही तिजोरी बनाये थे मैनें,
पर छिपा न सका मैं कोई खजाना ।

बड़ी जतन से रिश्ते बुने थे मैनें,
सीखा न कोई आज दोस्त बनाना ।

अच्छा लगता है

काली हो या नीली पीली,
शांत हो या छैल छबीली,
सुनहरी हो या फिर मटमैली,

अपनी बगिया अपने रंग में,
अपनी गति अपनी चाल से,
गाये गीत अपनी ताल में,

कलियों पर फिर पंख फैलाते,
कभी शरमाते कभी घबराते,
या फिर कभी उधम मचाते,

उन पुष्पों के नि:श्छल प्रेम में,
तितलियाँ खेलें जब बगियन में,
माली को फिर अच्छा लगता है ।

पुष्पांजली

सुबह की शीतल किरण नहाकर,
आज नये एक गुलाबी चुनर में,
मंदिर जाती प्रिय सखियों संग,
देने उन चरणों में फिर अंजली ।

गेंदा गुलाब और चंपा – चमेली
रजनीगंधा की माला लेकर,
मन में वंदना के गीत गाकर,
बृजबाला ले चली कमल कली ।

रोली – चंदन फुल – दुब की,
हाथों में आज थाली सजाए,
मंदिर के घंटी में विभोर होती,
श्याम की अपनी एक मनचली ।

कहीं मंदिर के मृदंग थाप पर,
थिरकते कदमों के पदचाप पर,
Worship
मनमत्त होकर गाना चाहती,
मीरा की हृदय एक दोहावली ।

मंदिर के बंदनवार मे सजी,
सैकड़ो जलते दीपक के बीच
मेंहदी हाथों से दीए जलाकर,
ज्यों मना रही हो दीपावली ।

कहीं किसी मन के मंदिर,
भावों के पुष्प हाथों लेकर,
चुप बैठी आज मनन करती,
गोरी का मन एक गीतांजली ।

(P.S. : Thanks to Goggle image search for the picture. Credit being acknowledged to the respective owner of the same.)

दूरी

पिया, मजबुरी है, तेरे साथ आज न मैं आ पाती,
तुम बगिया की हवाओं में ही मेरा साथ समझना ।

पिया, सोती नहीं मैं रातों में और रो भी न पाती,
कहीं आज, अपने पलकों में मुझे 
तुम सुलाना ।

पिया, कोने में रखी वीणा तो मैं आज बजा न पाती,
जब याद आए,मेरी मन की तारों को मीत समझना ।

पिया, कासे कहूँ, मैं तो तुम्हारी तरह रुठ भी न पाती ,
पर वहाँ पगली के सिसकियों को तुम भुल न जाना ।

जब से दुर हो – मेरी बाहें यूँ अकेली आज रह न पाती,
मेरे पिया, उनकी बंधन के यादों में तुम प्रीत जगाना ।

पिया, पता नहीं क्यों, आज विरह गीत भी मैं न गा पाती,
अगर हो सके तो, आज मेरी मौन को ही गीत समझना ।