होली की सुबह

होली की सुबह, आँचल का कोना दबाए ,
अँखियाँ बिछाये, एक सजनी सोचती है ,
कहीं दरवाजे पे आहट तो नहीं हुई ,
साजन को गये, शायद बरसों हो गये ।

काश वो आज आते, एक उपहार सजाये,
सासु माँ की नजर बचाकर, वो फिर कहते,
कुछ समझकर, बाकी अनजाने में,
“क्यों जी, आज फिर रंग जाएँ उसी रंग में । “

लाल-हरे, पीले-गुलाबी, दोनों रंग जाते,
सिर्फ साजन रंग दिखता आज आईने में,
गहरे रंगे गाल भी आज गुलाबी दिखते,
स्पंदित फिर काँप जाती देह बेचारी ।

आँगन की रंगोली को देखकर सोचती,
सखियाँ रंगोली में रंग भरेगी,
दोपहर देवर जी की भुतहा टोली पुकारेगी,
“भाभी जी, जरा बाहर आओ, आज होली आई है ।”

शाम को आवाज आती- “बहू माँ, बच्चों को बिठाओ”,
फुदकती वो फिर चाट-पकोड़ी, पुआ-पकवान सजाती,
बस हँसती और चिकोटी काट फिर बता देती उनको
“दीपू भाई, अभी तो दही बड़े बाकी ही हैं । “

“ट्रिंग..ट्रिंग…”
अरे…. । दरवाजे पर सही में आहट हूई है ।

—09 Mar.’06 11:00 AM

1 thought on “होली की सुबह”

Leave a comment