सपने और सच

कुछ देखा मैनें, अनजाने में,
ज्यों ही बंद की थी आँखें,
सोच रहा, सच है या सपना,
याद आता वो मन मंदिर,
जहाँ हम-तुम कल मिले थे ।


क्यों जीना चाहता हूँ – मैं,
उन्हीं चिरकल्पित सपनों में,
खुब हँसा, खुद पे, आज फिर ।
पता है, तुमसे भी ज्यादा सच्चे हैं,
तुम्हारी प्रतिबिंब,  मेरे सपनों में ।

पर क्यों डरता हूँ, जगने से मैं,
सोया नहीं हूँ, पर आँखें बंद हैं,
कहीँ झुठला न जाए, मेरा एक सपना,
और दिखे, खड़े उस आईने में तुम नहीं ।
और सपनों में ही, खोये थे तुम कहीं ।

क्या मानोगे, फिर तुम कभी,
इन शब्दों में, हाँ मैनें तुम्हें देखा है ।
फिर भी मेरी कोई शिकवा नहीं,
कोई शिकायत नहीं रही कभी ।
क्योंकि, शब्दों में, तुम सच सही ।