लकी और आठ दिन

लकी – बस कई महीने का,
कैसा दिखता होगा,
कैसा हँसता होगा,
या फिर कैसा रोता होगा,
शायद नन्हीं आँखें आज
मेरी फिर राह तकती है ।

कुछ सुनी मैनें उसकी,
कुलबुलाहट आज फोन पर,
और बैचेन हो उठा,
ज्यों लगता यहीं कहीं है,
मन करता था – छू लुँ ।
उठा लुँ आज गोद में,
फिर मत्त झुमूँ मैं ।

बस और आठ दिन,
क्यूँ नहीं बीतते ?
जैसे बीत जाते हैं,
मेरे आठ दिन वहाँ,
आठ पहर जैसे !