सादे पन्ने

पड़ी हूई थी चिठ्ठियाँ
आलमारी के कोने में,
फेंका भी नहीं उन्हें ।
कभी दरवाजे खुलते,
देखा हँसते थे –
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अक्षर उनमें ।
पर वह न हँस पाता,
टपकती उसकी दो बुँदें,
आँसु की तब,
भींग जाती स्याह,
मिटने लगते अक्षर ।
मान न पाता,
बस खेल था वो ।
बंद कर आलमारी,
बैठ गया कुर्सी पर,
देखा तो वहीं,
कलम पड़ी थी
टेबुल पर और,
कागज के सादे पन्ने,
पर बढ़ते न थे,
हाथ उसके,
लिख न पाते,
अगर लिखा कुछ
इस पल,
जो बीत जाएगा,
रह जाएँगे लिखे पन्ने ।
जो उसे प्यारे थे, और
बन जाएगा इतिहास ।
और फेंक न सकेगा ।
फिर नहीं लिखा उसने-
पुचकारा वहाँ पड़े सादे पन्ने ,
जो कम से कम,
चुप तो रहते ।