अँखियों की रातें

आँखें तो बंद दिखती उसकी,
पर अंदर पुतलियाँ सोती नहीं,
Sleeping Eyes..
दोनों सहेलियों सी टहलती ।
निशा-निमंत्रण वह कैसे देती,
पहेलियों में जो उलझती गयीं ।

उन करवटों में कुछ भावार्थ था,
वह स्वपन था या यथार्थ था ,
वहाँ स्वार्थ था या परमार्थ था ।
बीती रात की दुसरी पहर भी,
आँखे फिर
कब, यूँ ही सो पड़ी ।