याद है न वो दिन,
उसने फेंका था तेरा प्रसाद ,
तेरे उसी सिंहासन पर,
बैठा रहता,
तू मुस्कुराता ।
क्यों लेता वह तेरा प्रसाद,
तू सुनकर चुप जो रह जाता,
आँखे खोल क्यों अंधा होता तू,
क्यों न सुनता उसकी वाणी ।
उस दिन, उसकी पगली के आँसु,
बस मिन्नतें करती रही,
चिथड़ों पर लेटी ।
और तू चुपचाप,
बस गिनता रहा दिन ।
हाँ, तू सुनता है ।
पर परीक्षा लेता है न,
तड़पाता है – देखता है न,
न जीने देता, न मरने देता ।
ले, कब तक लेगा परीक्षा ?
अबकी तेरी भी परीक्षा है ।
देख, वहाँ पगली को,
फिर जगती है, रातों को,
सुबह घुमती है, सड़कों पे,
आँचल पसारे ।
पहले भर दे तू,
फिर उसका आँचल ।
उसी दिन फिर लेगा वो,
फटे आँचल से तेरा प्रसाद ।