सीपी की अमानत

कहीं टपकी थी, बस दो बुँदें,
छुपा था चेहरा, उस कोने,
जानोगे – गिरकर बन गये,
नन्हें मोती के फिर दाने ।

वहाँ धरती को भी मंजुर नहीं,
गिर रही थी, जब दो बुँदे ,
गुजरती हवा से कह डाला, उसने,
यह उस सीपी की अमानत है ।