आँसु की तीन बूँदे ।

पुछो उससे, जिसका अपना, आज नहीं आया,
देखो उसे, रात भर जिसने आँखे बिछाई हैं ,
बैठो वहाँ, जहाँ पुतलियाँ न हिलती हो ,
सिर्फ गालों पर आँसु नहीं, ठंडी ओस की बूँदें है।

गर्म चेहरे पर, अकेलेपन के साथी वे,
बूँदें खुद ही आती हैं, अपनापन लिए,
भरी आँखों के झरने से अनवरत बहती,
वे टपकती आँसु नहीं, एक शीतल नहान है ।

देखा है, पाषाण ह्रदय भी जब दुःखी होता है,
पाषाण को, जब अपना गर्व भी साथ न देता है,
बंद कमरे में , आँखो से वक्ष पर उतरते,
वही आँसु पाषाण को फिर मोम बनाते हैं ।

मैं दुःखी करता हूँ न आपलोगों को ।

माँ कहती हैं – बेटा दुनिया ऐसे ही दुःखी है , तुम्हारी दुख की कविताएँ या लेख उनके दुःखों को कम नहीं कर सकती है। भाग-दौङ के इस युग में जब लोग अपना बहुमूल्य समय में कुछ पढने को आएँ तो फिर दुःख भरे लेख उनको पढवाना उचित नहीं जान पढता है।

मैं थोङा-बहूत दुःखी करता होउँगा आपलोगों को, यह भी मैं जानता हूँ । युँ मैं भरसक कोशिश करता हूँ कि मेरे लेखों से पाठकों को दुःख न पहूँचे। फिर भी मेरे दर्द का व्रण नासुर ना बन जाए, सो दर्द को आप सबों के साथ बाँट लेता हूँ तो आराम महसुस होता है ।

अर्जित ज्ञान, अनुभवों एवं उससे उत्पन्न विचारों में पारदर्शिता ही मुझे पसंद है । मेरे बारे में कहने को आप भी खुले मंच पर स्वतंत्र है । न कहना चाहें तो भी ठीक ।

मतलब आपलोग जिसमें खुश वही सही , वरना मैं इंटरनेट पर लिखता क्यों, कागज की डायरी पर ही लिखा छोङ देता ।

नोट – लिखते-लिखते यह इतना बङा हो गया कि कविता का भुमिका न होकर एक अलग लघु लेख बन गया।