काली हो या नीली पीली,
शांत हो या छैल छबीली,
सुनहरी हो या फिर मटमैली,
अपनी बगिया अपने रंग में,
अपनी गति अपनी चाल से,
गाये गीत अपनी ताल में,
कलियों पर फिर पंख फैलाते,
कभी शरमाते कभी घबराते,
या फिर कभी उधम मचाते,
उन पुष्पों के नि:श्छल प्रेम में,
तितलियाँ खेलें जब बगियन में,
माली को फिर अच्छा लगता है ।
Beautiful poem. 🙂
@Juneli,
Thanks a lot 🙂
mujhe bhi acchaa lagta hai
hi
Mujhe bhi achi lagi ye poem…………
very lovely poem…………