कुछ आवाज


अकेली रास्तों में,
कुछ कंपन थी,
उन हवाओं की,
अनजानी दिशाओं से ,
उनकी आवाजें कहलाती –
और धीमे-धीमे,
मन को बहलाती,
और अनजाने में,
देह को थिरकाती ।

कुछ देर बाद,
गुँजती दीवारों में –
फिर कहीं खो जाती ।
पुकारता मैं,
आवाज देकर,
उन आवाजों को ।
वापस
कुछ आती तो –
बस मेरी आवाज ।
और रह जाती,
सिर से पैर तक,
चुपचाप सी एक कंपन ।