स्वप्निल आँखें

कहीं इस मन में,
सजे थे, कितने ही सपने मेरे,
पंख लगा नभ में उड़ने की,
पंछियों की तरह क्षितिज छुने की,
या बादलों में कभी छिपने की ।

कल कहाँ था मैं ,
और आज मैं यहाँ हूँ,
शायद कल मैं कहीं और रहूँ।
सच होते गए सपने बहुतेरे ।
खुशनसीब हूँ या सबकी दुआएँ ।

फिर भी – आज,
एक तड़प है मुझमें,
बैचेन सा हो जाता हूँ,
एक सपना कहीं का छुटा,
बुलाता मुझे – आज भी,
इतनी नजदीक होकर,
सफेद दीवारों के पार दे इशारे ।

शाय़द आधी उम्र का यही,
एक शेष स्वपन है ।
पंखों में थोड़ी और शक्ति,
फिर वही याचक की भक्ति,
स्वप्निल आँखें पता नही क्यों,
आज मेरी नहीं थकती ।