अनुगूँज 7 : बचपन का मेरा सीकिंया मीत

इंद्रजी का आमंत्रण के प्रत्युतर में विलंब का प्रश्न ही कहाँ उठता है। शीर्षक तो ऐसा दे रखा है कि कलम ( की-बोर्ड – मुहावरे में बदलाव की आवश्यकता है) तोङकर लिखने को मन करता है । कलम की बात से याद आया, अभी जिस तरह से गोली-लेखनी ( बाल-पेन ) का चलन है , वैसा आपके या मेरे बचपन में नहीं हुआ करता था । अभी तो लिखो-फेको का जमाना है , या फिर जेल-पेन नहीं मिला तो छोटकु नाराज । भविष्य के बच्चे शाय़द इस तरह जिद्दी नहीं होंगे , सीधे की-बोर्ड पर हाथ साफ करेगें । सैकङों फोंट की सहायता से उसका सुलेख देखने लायक होगा । चाहे कुछ भी हो , आज बचपन का मेरा बेजान सीकिंया मीत पेंसिल के बारे में कहना चाहूँगा । बीती बिसारना नहीं चाहता हूँ, जिसके कारण मैं आज यहाँ हूँ । Akshargram Anugunj

बात उन दिनों की है जब मैं एल.के.जी. या यु.के.जी. में पङता था, उस समय बाल-पेन का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था । पेन भी नही मिलता था मुझे ,सो दूसरों का देखकर ललचा जाता था । ऐसी बात नहीं की गरीबी थी , हम तीनों भाई – बहन में मैं ज्यादा भुल्लकर था । आज कलम दिया कि दो दिन में गायब । सो पेन बंद और रुल-पेंसिल (एच.बी.) चालु हो गया । जब नया पुरा लंबा पेंसिल भी खो दिया तब पेंसिल काट कर दिया जाने लगा । मैं तो महान था ही , हमारे क्लास के सहपाठियों में भी विद्यार्थियों के सारे गुण अलग – अलग परिमाणों में रहे होंगे । मेरे बको ध्यानम् का फायदा दुसरे किसी कि काक चेष्टा को मिलता होगा । नियमतः एक दिन आधा कटा हुआ पेंसिल भी गायब हो गया । माँ के धैर्य का बाँध टुट गया । माँ थोङा गुस्साकर एक अनोखा उपाय ढुँढ निकाली । मुझे काला धागे का बङा रील लाने को कही । कई धागे को मिलाकर पतला डोरा बनायी। मैं आज्ञाकारी बालक की तरह सामने खङा था । माँ मुझे कमीज उपर करने को कही और उसी धागे से कमर का नाप ली । आधा कटा हुआ पेंसिल लाकर पेंसिल के दूसरे छोर पर खाँच बनायी । अब धागे को कमर में बाँध दी । बाँधने के बाद लंबा सा धागा झुल रहा था । माँ धागे को पेंसिल के खाचें में बाँध दी और पेंसिल डाल दी पाकेट में । जा बेटा , तेरा पेंसिल अब नहीं खोएगा । स्कुल जाने लगा वैसे ही । क्लास में लिखते समय पेंसिल को बाहर कर लिखता उसी तरह से धागा से बँधा हुआ । कुछ दिन ऐसे ही चला , हाँ खेलते समय झट से पेंसिल बाहर आ जाता और फट से मैं भी उसे भीतर कर लेता । मैं ठहरा खोजी रचनात्मक दिमागी । फिर एक दिन मैंने पता कर ही लिया कि माँ की पेंसिल में गांठ लगाने की क्या विधि है । बस और क्या था , खेलने से पहले मैंने नख-दंत की सहायता से उसे खोल लिया, और दौङ पङा उन्मुक्त मैदान की और । खुल जा सिम-सिम तो सीख लिया था लेकिन बाँधने का गांठ मंत्र न सीखा। अक्कर – बक्कर का मंत्र पढा, मतलब किसी तरह से गाँठ लगाकर फिर पेंसिल को पाकेट में डाल लिया । अब अपना बाँधा हुआ गाँठ न तो खोल सकता था न ही पेंसिल के खाँच पर वह फिट ही बैठा , थोङा ढीला सा लग रहा था । डाँट पङेगी इसलिए माँ को कहा भी नहीं। मगर होनी को कौन रोक सकता है । एक दिन माँ जान ली की मेरा पेंसिल फिर खो गया है। मैं तो निश्चित था कि फिर बँधा पेंसिल कमर की डोरी में और ज्यादा गाँठे पङेगी , मार भी पङ सकती है । मगर आशा के विपरीत, इस बार माँ चेतावनी देकर नयी पेंसिल हाथ में दे दी । भगवान को तो पता नहीं धन्यवाद दिया की नहीं ,मगर माँ के पास पेंसिल न खोने की कसम खायी ।उसके बाद से बहुत हद तक सुधर गया था मैं ।

मगर आपलोग तो जानते ही हैं कि कसम तोङने के लिए भी होते हैं । भाई साहब , अभी तक पुरी तरह नहीं सुधरा हूँ । कभी कीमती कलम खोने पर याद आ जाती है कमर की काली डोरी । अगर मोबाइल फोन और कंपनी आई.डी. कार्ड की तरह पैन लटकाने का प्रचलन हो तो पक्का पैन लटकाकर चलुँगा ।

मेरा पार्कर पेन कमीज के पाकेट से झांककर यह सब स्क्रीन पर लिखता देखकर खुश हो रहा होगा ।

मगर कान में एक बात धीरे से कहूँ इंद्रजी , बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था ।

अनुगूँज ६: चमत्कार या संयोग ?

हमारे घर का वातावरण धार्मिक किस्म का है । टीन एज में नास्तिक बनने का मेरा जुझारु प्रयास टाँय-टाँय फिस्स हो गया था । जिनको आप अधिक चाहते है, उनसे ही झगङा भी ज्यादा होता है, वरना सङक के अजनबी से कौन झगङता है । माँ की चेतावनी सच हो गयी थी । काफी ठोकरें खाकर कुछ अज्ञात, अदृश्य सर्वशक्तिमान पर भरोसा हो गया । खैर मैं वो प्रसंग कहने जा रहा हूँ,जिसका मिलता जुलता शीर्षक अनुगूँज ने पहले ही दे रखा है ।

माँ अब बहुत कम ही उपवास रख पाती है । सरकारी स्कुलों की बढती जिम्मेदारियाँ और स्वास्थ्य की विवशताओं के कारण प्रभु से क्षमा प्रार्थना कर लेती है । फिर हमेशा की तरह , उस दिन उसने अपने अभीष्ट देवी की पुजा की। सुबह अभीष्ट देवी की पुजा कर वह तैयार होकर स्कुल जाने लगी । पुजा के बाद पहले प्रसाद गौ माता को देने की विधि है । समयाभाव के कारण पवित्र प्रसाद वह साथ ही लेकर स्कुल जाने लगी । चुँकि रास्ते में बहुत सारी गाऐं मिल जाती है , उन्हें प्रसाद खिलाकर फिर स्कुल में खुद प्रसाद ग्रहण करना चाहती थी । सो प्रसाद का डब्बा माँ अपने बैग में ले ली । उस दिन सुबह बारिश भी हुई थी इसलिए घर के सामने, सङक के किनारे थोङा पानी जमा हो गया था । एक गाय वहीं पर पानी पी रही थी । माँ उसके पास खङी हो गयी और उसके सिर उठाने का इंतजार करने लगी । मगर पानी पीकर वह फिर घास खाने लगी , इंतजार के बाद एक बार भी सिर नहीं उठाया । माँ दुखित हो गयी , क्योंकि घर से निकलते ही प्रथम अनुरोध अस्वीकार सा हो गया । निराश होकर वह आगे बढ चली, यह सोचकर कि किसी दुसरे गाय को खिला देगी । 10 -15 कदम बढी ही थी कि एक छोटा बछङा सामने आकर खङा हो गया । फिर अपने माथे से माँ के साथ खेलने लगा । पहले तो माँ ने उस बछङे को पुचकार कर अलग करना चाहा , मगर वो भी जिद्दी ही निकला । मेरे जैसे बछङे की माँ हो या उस बछङे की माँ , हरेक माँ को उपर वाले ने छठी ज्ञानेन्द्रिय दे रखी है । वह समझ गयी कि वह कुछ माँग रहा है , सो यह जानकर भी कि इतना छोटा बछङा नहीं खा सकता है , वह प्रसाद से एक दाना लेकर उसके मुँह में देने लगी । वो गाय जिसने पहले सिर नहीं उठाया था, उस बछङे की माँ थी । अब वो सब देख रही थी । बछङे को मेरी माँ के पास देखकर जल्दी- जल्दी गौ भी वहाँ पहूँच गयी । और सिर उठाकर वो भी शायद प्रसाद माँगने लगी । एक माँ की भाषा दुसरी माँ समझ गयी । प्रसाद खिलाते समय कुछ नीचे गिरे दाने को गौ ने देखा तक नहीं । बाकी प्रसाद गौ ने बङे प्रेम से खा लिया । गिरे हुए चने को माँ चुनकर फिर एक कागज में रख ली, धोकर खाने के लिए । शायद बछङे का अपना उद्देश्य प्राप्त हो गया था , सो वह दूर जाकर उछल रहा था । आखिर कभी कोई मुक जन्तु भी मनुष्य के मन की भाषा समझ सकता है क्या । कोई इसे संयोग कहे या आस्था या फिर दैवीय चमत्कार लेकिन जो कहा, वह सच है ।