मैं पत्थर नहीं, माटी हूँ ।

मैं पत्थर नहीं, माटी हूँ,
मत बरसना, घनेरे बादल मुझपर,
नहीं झेल पाता, मैं तेज बरसात,
मैं तो बस बह जाता हूँ ।

मै पत्थर नहीं, माटी हूँ,
नहीं है, मेरा कोई अस्थित्व,
बस धुल हैं मेरे संगी ।
सबकी चरणों के नीचे ।

मुझे तो उसने बनाया,
अंदर से ढेर सा प्यार और,
उपर से, सिर्फ उसकी थपकी ।
थोड़े-थोड़े पानी से बनाया,
उस तपती दुपहरिया में,
कुम्हार के चाक ने ।

मेरी ईच्छा नहीं रही कभी,
कि पूजा जाऊँ, पत्थर की तरह,
मेरी ईच्छा नहीं रही कभी,
कि देवमूर्ति में ढाला जाऊँ ।

मेरी तो ईच्छा रही की,
उन बच्चों का खिलौना बन जाऊँ,
बस खेल कर, उसी निर्मल प्यार से,
उन्हीं से टुटकर, मैं माटी बन जाऊँ ।

मैं पत्थर नहीं, माटी हूँ ।

3 thoughts on “मैं पत्थर नहीं, माटी हूँ ।”

Leave a comment