मैं पत्थर नहीं, माटी हूँ,
मत बरसना, घनेरे बादल मुझपर,
नहीं झेल पाता, मैं तेज बरसात,
मैं तो बस बह जाता हूँ ।
मै पत्थर नहीं, माटी हूँ,
नहीं है, मेरा कोई अस्थित्व,
बस धुल हैं मेरे संगी ।
सबकी चरणों के नीचे ।
मुझे तो उसने बनाया,
अंदर से ढेर सा प्यार और,
उपर से, सिर्फ उसकी थपकी ।
थोड़े-थोड़े पानी से बनाया,
उस तपती दुपहरिया में,
कुम्हार के चाक ने ।
मेरी ईच्छा नहीं रही कभी,
कि पूजा जाऊँ, पत्थर की तरह,
मेरी ईच्छा नहीं रही कभी,
कि देवमूर्ति में ढाला जाऊँ ।
मेरी तो ईच्छा रही की,
उन बच्चों का खिलौना बन जाऊँ,
बस खेल कर, उसी निर्मल प्यार से,
उन्हीं से टुटकर, मैं माटी बन जाऊँ ।
मैं पत्थर नहीं, माटी हूँ ।
As usual beautiful..
I like the ending very much….
Hope you remember my poem Patthar hoon main…
Kya uska jawab hai ye 😛
Thank you for liking it.
Pathar ka jawab mati…oh no, its mere coincidence only :). Yeh to bawra man ka mati dhul hai 🙂