दुःस्वप्न और माँ

क्यों न भुल पाता हूँ वो सपना ।
अकेला कमरे में पड़ा,
खोजता रहा – एक तीली ।
पुरानी सी मोमबत्ती के लिए ।
एक हाथ – बस थोड़ा सहारा ।
बस मैं खड़ा होना चाहता था ।

चिर छत्रछाया भी छिन गया था मेरा,
पौरुष की परीक्षा – अकेला मैं,
बस थपेड़े, उन हवाओं के,
जिनमें न तो गरमी थी, न ठंडक ।
फिर भी झुलसाता और कँपकपाता,
और काँपती रही मेरी की – बोर्ड ।

ज्यों थोड़ा आगे बड़ा,
झटका सा लगा, मैं छोड़ा लुढ़का,
गिरकर देखा मैनें,
काट लिया था, मेरा दायाँ हाथ,
किसी न माँग लिया,
कहा, उन्हें यही चाहिए ।

फिर भी मैंने दे दी –
अब तो मुझे छोड़ दो ।
मैं चिल्लाता – खिड़की खोलो ।
अब मैं नहीं आऊँगा ।
साँस घुट रही है, मर जाऊँगा ।
किसी ने न खोली ।

फिर भी मैंने सुना –
एक हँसी – जोरों की,
विजय का, एक उल्लास ।
वो कहते – मैं हार गया ।
फिर लु़ढ़क गया वहीं फर्श पर,
आँखे खोल – देखता रहा,
छत की और एकटक ।

बस आँखें लगी ही थी कि,
स्वपन में आया वो,
फिर देखा, अब अकेला नहीं,
कुछ और भी आए हैं ।
मैं डर गया था – बस ,
उनसे कसम खा ली –
मै नहीं आऊँगा ।
वे चले गये ।

चीखकर मैं उठ बैठा –
देखा, उपर ढँका है ,
एक पहचाना सा छाया,
उनके फटे आँचल की ।
पगली सी अकेली, कमजोर माँ ।
सिर्फ माथे पर एक चमक ।

कहती – कोई न आएगा यहाँ ।
फिर सो गया मैं –
कुछ नहीं बताया माँ को ।
पर गिरे – मेरे गाल पर,
उनके फिर वे आँसु –
जो कि बहुत ठंडी थी ।

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