सोनपरी

वो नीली आँखें बंद किए,
गुलाबी चुनरी में लिपटी हुई,
ज्यों फुलों के बिस्तर पर ,
सो रही थी – एक सोनपरी ।

चाँद सा उसका वो मुखड़ा,
खिल रही थी एक सादगी,
अपसराएँ ज्यों शरमा जाती,
शांत सो रही थी, सोनपरी ।

लहराते रेशमी, बाल उसके,
लालिमा भरे, गाल उसके,
चाँदनी में ज्यों नहाती,
अल्हड़ सी सोई सोनपरी ।

वहाँ सुंदर कोमल, हाथ उसके,
नगीने की अंगुठी, साथ उसके,
हथेली से मेंहदी झाँक रही,
सौन्दर्य की पर्याय सोनपरी ।

गुलाबी पंखुरी से होंठ उसके,
लगता था -अभी हँस पड़ेगी,
चंचल मन छुने को मचल जाता,
पर अभी सो रही थी सोनपरी ।

सुराही सी उसकी ग्रीवा ,
ज्यों कलाकार की अपनी कृति,
मोतियों की माला इतरा रही,
करवटें बदलती जब सोनपरी ।

रेशमी लहँगे की झालर से.
पाँवों के पायल अनायास हिलती,
कोमल कदमों की मल्लिका,
सपनों में खोई थी सोनपरी ।

P.S. : Since long back I have been planning to write such a poem, finally the idea got a shape after reading Juneli’s short story.

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