क्या बँध जाऐंगे मेरे शब्द,
खुलकर न कह पाऐंगे,
क्या कुसूर है उनका,
क्यों सजा मिलती उनको ।
क्यों बाँध देते हैं,
लोग निर्दोष शब्दों को,
कसमों में या स्वार्थ में,
इतिहास के पन्नों में ।
खुब संभलकर चलेंगें,
क्या अब थिरकेंगे ना,
क्यों भुलना है उन्हें ताल ?
जीवन का एक मधुर ।
क्यों न समझते लोग,
उनमें जीवन है एक ?
हमारी तरह देह के अंदर,
एक आत्मा है उनमें ।
जुड़ा है वह भी किसी,
परम शक्ति से,
उड़ना चाहता है,
उन्मुक्त अपने ध्येय को ।
विधा की अपनी धारा है,
उसकी अपनी गति है,
होनी भी कहीं लिखी है ।
पर शब्दों की अपनी गति है ।
क्यों न मैं कह पाता,
दो शब्द चाहकर भी,
क्यों रोक लेते हो,
क्षणिक जीवन के मेरे दो शब्द ।