याद है न वो दिन,
उसने फेंका था तेरा प्रसाद ,
तेरे उसी सिंहासन पर,
बैठा रहता,
तू मुस्कुराता ।
क्यों लेता वह तेरा प्रसाद,
तू सुनकर चुप जो रह जाता,
आँखे खोल क्यों अंधा होता तू,
क्यों न सुनता उसकी वाणी ।
उस दिन, उसकी पगली के आँसु,
बस मिन्नतें करती रही,
चिथड़ों पर लेटी ।
और तू चुपचाप,
बस गिनता रहा दिन ।
हाँ, तू सुनता है ।
पर परीक्षा लेता है न,
तड़पाता है – देखता है न,
न जीने देता, न मरने देता ।
ले, कब तक लेगा परीक्षा ?
अबकी तेरी भी परीक्षा है ।
देख, वहाँ पगली को,
फिर जगती है, रातों को,
सुबह घुमती है, सड़कों पे,
आँचल पसारे ।
पहले भर दे तू,
फिर उसका आँचल ।
उसी दिन फिर लेगा वो,
फटे आँचल से तेरा प्रसाद ।
Really beautiful and touchy one.
Hey there is a small mistake.
You wrote usaki pagali ke aansoo but I think it should be us pagali ke aansoo na.
@ Anubhuti,
Ya, you are correct with a natural view, but its really personal perspective here.
Here in this context, there lies the strongest attachment between he and पगली, using उस will make पगली alone. She has been his always ,and vice versa, hence knowning उसकी पगली is used.
I really feel nice to see the readers concerned here to improve the piece. My good luck !
Thanks for making it clear. Yes, now I understood. Otherwise, I was thinking how could you do such mistake. 🙂
Touched and moved.
Wish I could write like you…..